- Advertisement -

भगवदगीता के 10 लोकप्रिय श्लोक हिंदी अर्थ के साथ – Bhagwat Geeta Sanskrit Shlok With Hindi Meaning

Bhagwat Geeta Sanskrit Shlok – भगवद गीता, जीवन के हर पहलू को समझाने वाला और प्रेरणा देने वाला एक अद्वितीय ग्रंथ है। इसके श्लोक हमें न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं पर भी गहराई से विचार करने की प्रेरणा देते हैं। ये श्लोक (Geeta Sanskrit Shlok) हमारे मनोबल को बढ़ाते हैं और हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति और समझ प्रदान करते हैं। आइए, इन श्लोकों के माध्यम से भगवद गीता के अद्वितीय ज्ञान का लाभ उठाएं और अपने जीवन को नई दिशा दें।

इस पोस्ट में हम भगवद गीता के 10 जीवन के प्रेरणादायक श्लोक प्रस्तुत करेंगे, जो जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने और आत्मनिर्भरता, धैर्य, और समर्पण का महत्व सिखाते हैं। हर श्लोक के साथ उसका अध्याय और श्लोक संख्या, साथ ही उसका हिंदी में अर्थ (Geeta Shlok in Hindi) भी दिया गया है।


भगवद्गीता के 10 श्लोक अर्थ सहित | Bhagvat Geeta Sanskrit Shlok With Hindi Meaning

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

(अध्याय 2, श्लोक 47)

अर्थ: हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फलों में नहीं। इसलिए, हमें कर्म को फल की इच्छा से नहीं करना चाहिए और न ही कर्म न करने में आसक्त होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि हमें निस्वार्थ भाव से अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए और परिणाम की चिंता छोड़ देनी चाहिए। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म करते समय फल की इच्छा छोड़कर निष्काम भाव से कर्म करना ही जीवन का सही मार्ग है, जिससे मानसिक शांति और संतुलन प्राप्त होता है।

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥

(अध्याय 6, श्लोक 5)

अर्थ: व्यक्ति को स्वयं अपने आत्मा द्वारा अपनी उन्नति करनी चाहिए और स्वयं को नीचे नहीं गिराना चाहिए। आत्मा ही व्यक्ति का सबसे बड़ा मित्र है और वही आत्मा उसका सबसे बड़ा शत्रु भी बन सकता है। यदि व्यक्ति अपने आत्मा को नियंत्रित और संयमित करता है, तो आत्मा उसका मित्र बन जाती है, अन्यथा, आत्मा ही उसका शत्रु बन जाती है। यह श्लोक आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, और आत्म-उन्नति का महत्व दर्शाता है।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

(अध्याय 2, श्लोक 62)

अर्थ: जब व्यक्ति इन्द्रिय विषयों (सांसारिक भोगों) का ध्यान करता है, तो उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है। इस आसक्ति से इच्छाएं जन्म लेती हैं, और जब ये इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तो क्रोध उत्पन्न होता है। यह श्लोक समझाता है कि कैसे इन्द्रियों के विषयों पर ध्यान केंद्रित करने से मन में आसक्ति उत्पन्न होती है, जो अंततः कामना और फिर क्रोध में बदल जाती है, जिससे मानसिक शांति भंग होती है और व्यक्ति के जीवन में असंतुलन आ जाता है।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥

(अध्याय 3, श्लोक 19)

अर्थ: आसक्ति (लगाव या मोह) रहित होकर निरंतर अपने कर्तव्यों का पालन करो, क्योंकि जो व्यक्ति बिना आसक्ति के कर्म करता है, वह परम पद को प्राप्त करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि हमें अपने कर्तव्यों का पालन निस्वार्थ भाव से और आसक्ति रहित होकर करना चाहिए। ऐसा करने से हम उच्चतम आत्मज्ञान और मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

(अध्याय 2, श्लोक 27)

अर्थ: जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है। इसलिए, जो अटल और अपरिहार्य है, उसके विषय में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखा रहे हैं कि जीवन और मृत्यु के चक्र को समझते हुए, जो अपरिहार्य है, उस पर शोक करना व्यर्थ है। यह शाश्वत सत्य है कि जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद पुनः जन्म निश्चित है। इस ज्ञान को आत्मसात कर, मनुष्य को शोक से परे रहना चाहिए।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

(अध्याय 2, श्लोक 16)

अर्थ: जो होने वाला है, वह होकर ही रहता है और जो नहीं होने वाला, वह कभी नहीं होता। जो ऐसा मानते हैं, उन्हें चिंता कभी नहीं सताती है। इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह सिखाते हैं कि सत्य और असत्य के बीच का भेद समझना चाहिए। सत्य को जानकर, हमें चिंता और दुख का अनुभव नहीं होता। जो वस्तु अस्तित्व में नहीं है, उसके लिए शोक करना व्यर्थ है, और जो वस्तु सदैव है, उसके लिए हमें स्थिर रहना चाहिए।

न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

(अध्याय 2, श्लोक 20)

अर्थ: आत्मा अजर-अमर है। यह आत्मा न तो जन्म लेती है और न ही मरती है। यह सदैव स्थायी, शाश्वत और अनादि है। शरीर के नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता। इसलिए, हमें आत्मा के अमरत्व को समझकर जीवन और मृत्यु के भय से मुक्त होना चाहिए।

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥

(अध्याय 2, श्लोक 27)

अर्थ: जो होने वाला है, वह होकर ही रहता है और जो नहीं होने वाला, वह कभी नहीं होता। इस संसार के सभी प्राणी अदृश्य से प्रकट होते हैं और अंत में पुनः अदृश्य में विलीन हो जाते हैं। जो व्यक्ति इस सत्य को समझते हैं, उन्हें शोक या चिंता कभी नहीं सताती है। जीवन और मृत्यु के इस चक्र को जानकर हमें मन की शांति प्राप्त करनी चाहिए।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

(अध्याय 2, श्लोक 23)

अर्थ: आत्मा अजर-अमर और अविनाशी है। आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, जल उसे गीला नहीं कर सकता और वायु उसे सुखा नहीं सकती। आत्मा को किसी भी भौतिक वस्तु से नष्ट नहीं किया जा सकता। यह श्लोक हमें आत्मा की शाश्वतता और अनश्वरता का ज्ञान कराता है और इसकी दिव्यता और अमरता को समझने में मदद करता है।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

(अध्याय 4, श्लोक 8)

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब वे धर्म की पुनः स्थापना, सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए अवतरित होते हैं। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि भगवान सदा धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं और जब भी समाज में अधर्म का प्रकोप बढ़ता है, वे अवतार लेकर उसे समाप्त करते हैं। यह हमें भगवान के प्रति अटूट विश्वास और धर्म के प्रति निष्ठा रखने की प्रेरणा देता है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

(अध्याय 4, श्लोक 7)

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब भी इस संसार में धर्म की हानि और अधर्म का प्रकोप बढ़ता है, तब वे स्वयं इस संसार में अवतरित होते हैं। उनका अवतार सज्जनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की पुनः स्थापना के लिए होता है। यह श्लोक यह स्पष्ट करता है कि भगवान सदैव धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं और जब भी समाज में असंतुलन होता है, वे उसे सुधारने के लिए अवतरित होते हैं। इससे हमें भगवान के प्रति अटूट विश्वास और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है।

(Bhagwad Geeta Shlok in Hindi)


भगवदगीता के इन श्लोकों (Geeta Sanskrit Shlok) के माध्यम से हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन दृष्टिकोण प्राप्त होता है। ये श्लोक हमें कर्म, भक्ति, ज्ञान, और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों के माध्यम से हम यह सीखते हैं कि जीवन में कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना कैसे करना चाहिए, और अपने कर्तव्यों का पालन कैसे करना चाहिए। आशा है कि इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से आप भगवदगीता के श्लोकों (Geeta Shlok in Hindi) की महत्ता और उनकी गहराई को समझ सके होंगे। धन्यवाद!!

ये भी पढ़ें:

Leave a Comment

Advertisement