कबीर दास जी 15वीं शताब्दी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। उनका जन्म सावंत 1455 (ई० 1398 ) में राम तारा काशी में हुआ था। कबीर दास जी हिंदी साहित्य की निर्गुण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। उनके गुरु संत आचार्य रामानंद जी थे। कबीर के दोहे में आपको हिंदी भाषा की अनेक बोलियों का मिश्रण मिलेगा, जिसमें राजस्थानी, हरयाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी तथा ब्रजभाषा सम्मिलित है। उनके दोहों को बीजक ग्रन्थ में संकलित किया गया है। उनके कुछ लोकप्रिय दोहे के संग्रह को यहां तीन भागो में प्रस्तुत किया है। ये पोस्ट दूसरा भाग है –
- कबीर के दोहे भाग -1
- कबीर के दोहे भाग -2 (इस पोस्ट में पढ़ें)
- कबीर के दोहे भाग -3
कबीर के दोहे (Kabir Ke Dohe) – Kal Kare So Aaj Kar
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में परलय होएगी, बहुरि करेगा कब || 1 ||
भावार्थ || 1 || – संत कबीर दास जी इस दोहे में समय की महत्ता बताते हुए कहते हैं कि हमारे पास समय बहुत कम है इसलिए कभी भी कल पर कोई काम मत छोड़ो। जो कल करना है उसे आज कर लो और जो आज करना है उसे अभी कर लो। क्यूंकि किसी को पता नहीं अगर कहीं अगले ही पल में प्रलय आ जाये और जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कर पाओगे, तब तो सभी काम अपूर्ण ही रह जायेंगे अर्थात अपने किसी भी काम को समय के भरोसे नहीं टालना चाहिए क्योंकि आने वाले समय में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता।
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय || 2 ||
भावार्थ || 2 || – कबीर दास जी कहते हैं कि जो हमारी निंदा करता है, उनको हमेशा अपने पास रखें। वे कहते हैं कि निंदक को तो आँगन में कुटी बनवाकर अपने पास ही रखना चाहिए क्योंकि वे लोग आपके दोषों को आपके सामने रखते हैं। निंदा से हमें अपनी कमियों का पता चलता है और हम उन्हें दूर कर लेते हैं। इस प्रकार साबुन और पानी के बिना ही वे हमारे स्वभाव को निर्मल बना देते हैं।
ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोए
औरन को शीतल करे, आप हूँ शीतल होए || 3 ||
भावार्थ || 3 || – कबीर दास जी कहते हैं, कि प्रत्येक मनुष्य को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा सुनने वालो को तो सुख का अनुभव कराती ही है, इसके साथ स्वयं का मन भी आनंद का अनुभव करता है। ऐसी ही मीठी वाणी के उपयोग से हम किसी भी व्यक्ति को उसके प्रति हमारे प्यार और आदर का एहसास करा सकते है।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय || 4 ||
भावार्थ || 4 || – कबीर दास जी कहते हैं कि अपने मन में धर्य और धीरज धारण करने से ही सब कुछ प्राप्त होता है। माली भले ही पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे पर समय (ऋतु) आने पर ही पेड़ फल देगा। भाव है की मेहनत करते जाओ, जब उचित समय आएगा तब ईश्वर स्वतः ही फल प्रदान कर देगा।
आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गयी खेत || 5 ||
भावार्थ || 5 || – कबीर दास जी कहते हैं कि जीवन में जब अच्छे दिन थे तब तो हरी को स्मरण नहीं किया अब पछताने से क्या होगा जब समय ही शेष नहीं बचा है। अब क्या किया जा सकता है जब आयु ही पूर्ण होने को आई है, बुढापा आ चूका है अब हाथ मलने से कुछ हाशिल होने वाला नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे कोई किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और देखते ही देखते चिड़िया उसकी फसल चुग जाएं।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कहे कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीत || 6 ||
भावार्थ || 6 || – कबीर दास जी कहते हैं कि मन के हारने से हार होती है और मन के जीतने से जीत होती है। यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो पराजय निश्चित है और यदि उसने मन से अपनी जीत मान लिया तो वह विजेता है। उसी प्रकार ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे? कबीर दास जी कहते हैं कि मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर || 7 ||
भावार्थ || 7 || – कबीर जी इस दोहे में कहते हैं कि भगवान का नाम लेते लेते, माला जपते-जपतेे तुमने युगों-युग बिता दिए। तुमने सारा जीवन माला के मनके घूमाने में लगा दिया पर फिर भी अपने मन की बुराइयों को नहीं जीत पाए। जिस मन की शांति के लिए तुम सदा भगवान की माला जपते रहते हो वह शांति तुम्हें आज तक नहीं मिली इसलिए इस हाथ में पकड़े मनके (माला) को छोड़ कर अपने मन के मनको का ध्यान करो। अपने मन को शुद्ध करो, अपने विचार में शुद्धता लाओ तभी तुम्हें मन की शांति प्राप्त होगी।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय || 8 ||
भावार्थ || 8 || – कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि किसी को छोटा समझ कर उसकी शक्तियों को कम आंक कर उसकी अवहेलना और निंदा नहीं करनी चाहिए। पैरों के नीचे पड़े हुए तिनके को भी कभी कम मत समझो, जब वही तिनका उड़ कर आँखों में चला जाता है तब वह बहुत ही अधिक पीड़ा देता है। इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति कमजोर नहीं समझना चाहिए क्योकि अपना समय आने पर वही भारी पड़ सकता है
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर || 9 ||
भावार्थ || 9 || – कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं
भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि || 10 ||
भावार्थ || 10 || – कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि किस प्रकार जीवन में गुरु बनाने के ज्यादा जरूरी है एक अच्छा गुरु बनाना है। वे कहते हैं कि हमें कभी भी बाहरी आडम्बर देखकर गुरु नहीं बनाना चाहिए बल्कि ज्ञान और गुण को देखकर ही गुरु का चुनाव करना चाहिए। गुरु बनाने के लिए व्यक्ति के भीतर का ज्ञान, गुण, आत्मा देखनी चाहिए ताकि वह आपको संसार रूपी भंवर सागर से पार लगा सके।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान || 11 ||
भावार्थ || 11 || – कबीर दास जी इस दोहे कहते हैं कि यह जो शरीर है वह विष सामान बुराइयों (जहर) से भरा हुआ है और एक सच्चा गुरु अमृत की खान। वे कहते हैं कि यदि अपना शीश (सर) का दान कर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा बहुत ही सस्ता है
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