- Advertisement -

रावण रचित शिव तांडव स्तोत्र अर्थ सहित – Shiv Tandav Stotram in Hindi

Shiv Tandav Stotram in Hindi – पौराणिक कथाओं के अनुसार शिव तांडव स्तोत्र की रचना रावण द्वारा की गई थी। यह स्त्रोत भगवान शिव के ब्रह्मांडीय नृत्य का प्रतिनिधित्व करता है जो सभी नकारात्मक ऊर्जाओं को समाप्त करता है। रावण ने इस स्त्रोत में 15 श्वलोकों का वाचन किया था जिसे शिव तांडव स्तोत्रम के नाम से जाना गया। प्रस्तुत है शिव तांडव स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित


शिव तांडव स्तोत्र अर्थ सहित – Shiv Tandav Stotram in Hindi

।। शिव ताण्डव स्तोत्रं ।।

जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले
गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं
चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥१॥

अर्थ ॥१॥ – जिन शिव जी की सघन, वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धाराएं उनके कंठ को प्रक्षालित करती हैं,जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं, तथाजो शिव जी डम-डम डमरू बजा कर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं,वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी
विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके
किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम: ॥२॥

अर्थ ॥२॥- जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं,जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं,उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग (भक्ति) प्रतिक्षण बढता रहे।

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर
स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि
क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

अर्थ ॥३॥- जो पर्वतराजसुता (पार्वतीजी) के विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं,जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथाजिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं,ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।

जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा
कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे
मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥

अर्थ ॥४॥ – जिनके जटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूप केसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं । और जो गजचर्म से विभुषित हैं मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं।

सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर
प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः
श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥

अर्थ ॥५॥- जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं),जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है,वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।

ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिंगभा
निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्‌।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं
महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥

अर्थ ॥६॥- जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं,वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।

करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल
द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक
प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥

अर्थ ॥७॥- जिन शिव शंकर ने अपने विकराल ललाट में प्रज्वलित अग्नि में प्रबल कामदेव की आहुति दे दिया तथा जो शिव प्रकृति पर चित्रकारी करने में अत्यंत कुशल है ऐसे त्रिनेत्र महादेव में मेरा मन (प्रीति) लगा रहे।

नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर
त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः
कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥

अर्थ ॥८॥ – जिनके कंठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावस्या की रात्रि के समय फैलते हुए अंधकार के समान कालिमा अंकित है। ऐसे शिवजी जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथाजो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं,वे शिव जी हमे सभी प्रकार की सम्पनता प्रदान करें।

प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा
विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।
स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥

अर्थ ॥९॥ – जिनके सुंदर कंठ की परम सुंदर शोभा खिले हुए नीलकमल के चारों ओर फैली हुई नीलवर्ण कांति का अनुकरण करने वाली है तथा जो कामदेव को भस्म करने वाले त्रिपुरारी, दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाले, गजासुर का संघार करने वाले, और अंधकासुर का नाश करने वाले तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं,मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी
रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।
स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं
गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥

अर्थ ॥१०॥ – जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं,जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।

जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध
गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगल
ध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः॥११॥

अर्थ ॥११॥ – जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए साँपों के फुफकारने से ललाट की भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है। धीमे धीमे बजते हुए मृदंग के गंभीर मंगल स्वर के साथ जिनका प्रचंड तांडव हो रहा है, उन भगवान शंकर की जय हो।

दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्रजो
र्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥

अर्थ ॥१२॥ – कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर समान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।

कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌
विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः
शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

अर्थ ॥१३॥ – वह कौन सा कल्याणकारी समय होगा जिस समय मैं समस्त कुविचारों का परित्याग कर सुरसरि तट के कुंज में निवास कर के शिव पर अंजुली बांधती हुई चंचल नेत्र वाली स्त्रियों में श्रेष्ठ जगत जननी श्री पार्वती जी को भी भाग्य बस प्राप्त हुए अर्थात दूसरों को दुर्लभ शिव, शिव का मंत्र का उच्चारण करता हुआ परम आनंद को प्राप्त होउंगा ?

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-
निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः ।
तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं
परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

अर्थ ॥१४॥ – देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते हुए सुगंधमय राग से मनोहर परम शोभा के धाम महादेव जी के अंगों की सुन्दरता परमानन्दयुक्त हमारे मन की प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहे।

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी
महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना।
विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः
शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥

अर्थ ॥१५॥ – प्रचण्ड बड़वानल के समान पापों को भस्म करने में प्रचंड अमंगलों का विनाश करने वाले अष्ट सिद्धियों तथा चंचल नेत्रों वाली कन्याओं से शिव विवाह समय गान की मंगलध्वनि सब मंत्रों में परमश्रेष्ठ शिव मंत्र से पूरित, संसारिक दुःखों को नष्ट कर विजय पायें।

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं
पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं
विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥१६॥

अर्थ ॥१६॥ – इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्त्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो जाता है, और परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं
यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे ।
तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां
लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥

अर्थ ॥१७॥ – प्रात: शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।

॥ इति शिव ताण्डव स्तोत्रं संपूर्णम्‌॥

(Shiv Tandav Stotram in Hindi)


शिव तांडव स्तोत्र मूल कथा – Origin Of Shiv Tandav Stotra

शिव तांडव स्त्रोत (Shiv Tandav Stotram) की रचना के विषय में कुछ पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा गया है की रावण भगवान शिव के सबसे महान भक्त था। रावण ने भोलेनाथ को अपना ईष्टदेव और गुरु दोनों माना था। एक दिन जब रावण के मन में आया कि मैं सोने की लंका में रहता हूं और मेरे ईष्ट भगवान शिव कैलाश पर्वत पर रहते हैं तब उसने सोचा क्यों ना भगवान शिव को भी लंका में ही ले आयें। यह सोचकर रावण कैलाश पर्वत की ओर चला, वो कई तरह के सोंच-विचार करते हुए कैलाश पर्वत की तलहटी में पहुंचा।

तभी उसने देखा की सामने से भगवान शिव के वाहन नंदी आ रहे थे। नंदी ने शिव भक्त रावण का अभिवादन किया, रावण ने अहंकार वश कोई जवाब नहीं दिया, नंदी ने फिर रावण से बात की तो रावण ने नंदी का अपमान कर दिया। रावण ने नंदी को बताया कि वह भगवान भोलेनाथ को लंका ले जाने के लिए आया है। नंदी ने कहा – भगवान को कोई उनकी इच्छा के विरुद्ध कहीं नहीं ले जाया जा सकता।

रावण को अपने बल पर घमंड था, रावण ने कहा अगर भगवान शिव न माने, तो मैं पूरा कैलाश पर्वत ही उठाकर ले जाऊँगा। ऐसा कह कर उसने कैलाश पर्वत को उठाने के लिए अपना हाथ एक चट्टान के नीचे रखा। भगवान शिव कैलाश पर्वत पर बैठे यह सब देख रहे थे। कैलाश हिलने लगा, सभी रूद्र गण भयभीत हो गए परन्तु भोलेनाथ शांत बैठे रहे। जब उसने पूरा हाथ पर्वत की चट्टान के नीचे फंसा दिया तब भोलेनाथ ने मात्र अपने पैर के अंगूठे से कैलाश पर्वत को दबा दिया।

रावण का हाथ पर्वत के नीचे फंस गया और निकल नहीं पा रहा था। भोलेनाथ अपने आसन पर बैठे मुस्कुरा रहे थे। इसी समय रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए शिव तांडव स्तोत्र (Shri Shiv Tandav Stotra) की रचना की थी। जिसे सुनकर शिव ने प्रसन्न हो कर उसे मुक्त कर दिया था। इसमे से 15 श्लोकों की रचना रावण ने की थी और अंतिम 2 श्लोक बाद में जोड़े गए हैं।


ये भी पढ़ें: 

पोस्ट शेयर करें और सनातन संस्कृति के उत्थान में मदद करें 🙏

Leave a Comment

Advertisement